Heinrich | gürtel | unde | vingerlîn | | Gürtel | und | Fingerringe |
339 | mit | dienste | brâhte | er | si | ûf | die | vart | | mit | Aufmerksamkeit | brachte | er | sie | zu | dem | Punkt |
| daz | si | im | alsô | heimlich | wart | | dass | sie | ihm | so | engvertraut | wurde |
| daz | er | si | sîn | gemahel | hiez | | dass | er | sie | seine | Braut | nannte |
342 | diu | guote | maget | in | liez | | das | liebe | Mädchen | ihn | ließ |
| belîben | selten | eine | | bleiben | nie | allein |
| er | dûhte | si | vil | reine | | er | erschien | ihr | ganz | makellos |
345 | swie | starke | ir | daz | geriete | | wie immer | sehr | sie | dazu | ermutigten |
| diu | kindische | miete | | die | kindlichen | Geschenke |
| iedoch | geliebete | ir- | -z | aller | meist | | jedoch | machte angenehm | ihr | es | _ | am meisten |
348 | von | gotes | gebe | ein | süezer | geist | | von | Gottes | Gnade | ein | liebendes | Herz |
| Ir | dienest | was | sô | güetlich | | ihr | Dienst | war | so | liebevoll |
| dô | der | arme | Heinrich | | als | der | arme | Heinrich |
351 | driu | jâr | dâ | entwelte | | drei | Jahre | dort | gelebt hatte |
| und | im | got | gequelte | | und | ihm | Gott | gepeinigt hatte |
| mit | grôzem | sêre | den | lîp | | mit | großem | Schmerz | den | Körper |
354 | nû | saz | der | meier | und | sîn | wîp | | da | saßen | der | Meier | und | seine | Frau |
| und | ir | tohter | diu | maget | | und | ihre | Tochter | das | Mädchen |
| von | der | ich | iu | hân | gesaget | | über | die | ich | Euch | habe | berichtet |
357 | bî | im | in | ir | unmüezikeit | | bei | ihm | mit | ihrer | Arbeit |
| und | weinden | ir | herren | leit | | und | (be)klagten | ihres | Herren | Leiden |
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